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Saturday, April 03, 2010

धन से मनुष्य का पाप उभर जाता है

धन से मनुष्य का पाप उभर जाता है,
निर्धन जीवन यदि हुआ,बिखर जाता है .
कहते है जिसको सुयास - कीर्ति, सो क्या है ?
कानो की यदि गुदगुदी नही, तो क्या है ?
यश-अयश-चिन्तना भूल स्थान पकरो रे !
यस नही, मात्र जीवन के लिए लरो रे !
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बलि योद्धा , बऱा बिकराल था वह !
हरे ! कैसा भयानक काल था वह ?
मुषल विष में बुझे थे , बाण क्या थे !
शिला निर्मोघ ही थी , प्राण क्या थे !

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