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Saturday, April 11, 2009

सोशल नेटवर्किंग से ऐसा भी क्या डरना

इधर वर्ल्ड वाइड वेब यानी इंटरनेट ने अपनी खोज के 20 साल पूरे किए हैं, और इधर ही इस चर्चा ने जोर पकड़ा है कि कहीं इंटरनेट लोगों को बीमार तो नहीं बना रहा है। खास तौर से सोशल नेटवर्किंग के काम में लगी फेसबुक जैसी वेबसाइटों पर यह तोहमत है कि उनकी वजह से समाजों में अकेलापन और उससे जुड़ी समस्याएं बढ़ रही हैं। सेहत के अलावा इन वेबसाइटों को देशों की सुरक्षा-संप्रभुता के लिए खतरा तो काफी अर्से से बताया जाता रहा है। जब-तब उन पर पाबंदियां भी लगाई जाती रही हैं और शोर मचने पर उन्हें हटाया भी गया है।

जहां तक इंटरनेट के खतरों की बात है, तो इसके आविष्कारक सर टिम बर्न्स ली ने ही हाल में कहा है कि वर्ल्ड वाइड वेब दुनिया का विलेन बन चुका है। इसके जरिए लोगों की जासूसी हो रही है और इसे ब्लैकमेलिंग का औजार बनाए जाने की आशंका बढ़ गई है। दूसरी ओर दुनिया के कुछ सेहतविज्ञानी हैं, जो मानते हैं कि टीवी-इंटरनेट जैसी सुविधाएं असल में हमारी सामाजिकता पर बंदिशें लगा रही हैं और इनसे कैंसर जैसी बीमारियों का खतरा भी बढ़ गया है। हालांकि अपनी बात साबित करने के कोई ज्यादा प्रमाण उनके पास नहीं हैं, सिवाय उन कुछ अध्ययनों (ब्रिटेन में चिल्ड्रेंस ससायटी) के, जिनमें यह नतीजा निकाला गया है कि चूंकि बच्चे, किशोर और युवा अपना बहुत सा वक्त टीवी और कंप्यूटर के सामने बिताते हैं, इस कारण वे अपने अभिभावकों की निगरानी से दूर रहते हैं, आसपास के माहौल से उनका प्रत्यक्ष संपर्क नहीं रहता, शारीरिक श्रम का अभाव रहता है और उनके गलत संगत में पड़ जाने की आशंका रहती है। यही नहीं, ब्रिटेन जैसे विकसित देशों में पांच साल के चौथाई बच्चों के पास अपना कंप्यूटर-लैपटॉप है और उनका ऑनलाइन गेमिंग वाली सोशल नेटवर्किंग से जुड़ना भी खतरनाक बताया जा रहा है।

इंटरनेट जब तक सूचनाओं के सामान्य आदान-प्रदान की व्यवस्था बना रहा और उसकी भूमिका रेल, हवाई रिजर्वेशन से लेकर बैंकिंग और शेयर कारोबार तक सीमित रही, तब तक उसके फायदों का ही गुणगान ज्यादा हुआ। लेकिन जब से सोशल नेटवर्किंग के रूप में उसकी नई उपयोगिता सामने आई है, तब से इससे संभावित नुकसानों का जिक्र बढ़ गया है। इंटरनेट अडिक्शन की बातें कही जा रही हैं और इंटरनेट के बीमारों को स्वस्थ बनाने के लिए दुनिया में खास क्लिनिक तक खोले जा रहे हैं।

बहुत मुमकिन है कि इंटरनेट कई मुश्किलें पेश करने के लिए दोषी पाया जाए, पर तब भी क्या इसके फायदों को नजरअंदाज करना संभव होगा? इसकी बहुनिंदित सोशल नेटवर्किंग साइटें लोगों समुदायों को करीब लाने का जरिया बनी हैं। पिछले कुछ ही वर्षों में ब्लॉगिंग से आगे बढ़कर लोग माई स्पेस, फेसबुक और ऑरकुट जैसी सामुदायिक वेबसाइटों से जुड़े हैं तो इसकी कोई वजह जरूर होगी। असल में ऐसी सोशल वेबसाइटों के जरिए लोगों को एक सी दिलचस्पी या पेशे वाले लोगों का वर्ल्ड वाइड समुदाय मिला है। इंटरनेट के इस समुद में हर शौक और पेशे के लिए जगह है, इसलिए सोशल नेटवर्किंग साइटों पर लाखों-करोड़ों लोग ग्लोबल कम्यूनिटी में शामिल हो चुके हैं। फिलहाल ज्यादा कमाई नहीं होने के बावजूद इन साइटों का कारोबार इतना फैला हुआ है कि इनके लिए अमीर बिजनसमन करोड़ों डॉलर के दांव लगा रहे हैं। माई स्पेस के लिए रूपर्ट मर्डोक ने 90 करोड़ डॉलर लगाए थे और यू ट्यूब पाने के लिए गूगल ने एक अरब डॉलर से भी ज्यादा खर्च किए थे।

कुछ सोशल नेटवर्किंग वेबसाइटों का इस्तेमाल आपराधिक कृत्यों में भी हुआ है। एकाध मौकों पर कुछ युवाओं ने इंटरनेट पर डाली गई अपनी प्रोफाइल को तवज्जो नहीं मिलने पर आत्महत्या तक करने की कोशिश की है। आईआईटी कानपुर के एक छात्र के प्रोफाइल से जुड़ी पांच लड़कियों ने वह प्रोफाइल एक ही दिन में 'डिलीट' कर दिया तो छात्र ने अवसाद में आत्मघात का प्रयास किया था। मुंबई में सोलह बरस के अदनान के अपहरण और उसकी हत्या के किस्से में एक सोशल नेटवर्किंग साइट की बदनामी हुई। इन साइटों पर देश विरोधी टिप्पणियां करने और सम्मानित शख्सियतों के खिलाफ अनाप-शनाप लिखने के कुछ वाकये भी हुए हैं। लेकिन इस आरोप से पूरी तरह सहमत होना मुश्किल है कि सोशल नेटवर्किंग दुनिया को कुछ देने से ज्यादा छीन रही है। ये साइटें अगर इतनी ही हानिकर हैं तो समाज को इस बारे में आत्ममंथन करना चाहिए कि ये इतनी तेजी से बढ़ क्यों रही हैं?

अगर बीमारी इतनी ही असाध्य हो जाए है, तो इस मामले में चीन जैसे इंतजाम भी किए जा सकते हैं। ईरान और क्यूबा की तरह चीन में राजनीतिक कारणों से कई वेबसाइटों पर रोक है और इंटरनेट पर पहरे बिठाने के लिए वहां पुलिस की खास व्यवस्था की गई है। इतनी पाबंदियों के बाद भी चीन उन मुल्कों में है, जहां इंटरनेट का प्रसार सबसे ज्यादा तेजी से हो रहा है। आखिर क्यों? संभवत: इसलिए कि इन पाबंदियों का स्वरूप ऐसा नहीं है कि उनसे नेट का प्रचार-प्रसार ही रुक जाए।

भले ही भारत जैसे लोकतंत्र में इंटरनेट पर चीन जैसी सेंसरशिप लागू करना उचित माना जाए, पर चीन से दो उपाय तो सीखे ही जा सकते हैं। एक, कानून और पुलिसिंग की व्यवस्था नए तकनीकी विकास की जरूरतों के मुताबिक खुद को ढाले और दो, अगर कोई मनोवैज्ञानिक समस्या इन कारणों से उत्पन्न हो रही है, तो उसके निदान के लिए इंटरनेट क्लिनिक जैसे इंतजाम के बारे में सोचा जाए। लेकिन इंटरनेट या सोशल नेटवर्किंग पर कोई बड़ी रोक ठीक वैसी ही साबित हो सकती है, जैसे आतंकियों की आपसी बातचीत को रोकने के लिए पूरे टेलिफोन नेटवर्क को ही जाम कर देना

द्वारा : संजय वर्मा(नव भारत टाईम्स )

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