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Thursday, March 31, 2011

हुस्न


हुस्न  को संवरनें की जरूरत क्या है |
सादगी भी तो कयामत की नज़र रखती है |
हुस्न जब - जब बेपर्दा होता है |
ज़माने से हर बार रुसवा होता है |
सुना है आजकल हुस्न का अंदाज़
कुछ  बदला - बदला सा लगता है |
पहले हुस्न परदे की ओट में रहा करता था  |
आज  सरे राह नज़रे कर्म  हुआ करता है |
पहले उस तक पहुंचने  को लोग तरसते थे |
अब न चाह कर भी वो हर राह से गुजरता है | 
चिलमन में छुपे  हुस्न का अंदाज़  ही  निराला था |
उसके दीदार में बिछी आँखों का नशा भी सुहाना था |
अब न वो हुस्न है न चाहने वालों का अंदाज़ बाकि है |
अब तो बदला - बदला सा ये सारा जहां नज़र आता है |
चाहने वालों ने भी अपना अंदाज़  कुछ बदला है |
अब वो भी सरे राह का नज़ारा देखते फिरते हैं |
जब हुस्न बेपरवाह है तो...
चाहने वालों की इसमें  क्या  खता हैं ?
फिर उनके सर  दिया गया इल्ज़ाम ...
उनकों बे मतलब में  दी गई एक सज़ा है |
खुद को महफूज एसे रखो की चाहने वाला भी 
तुम्हारे हुस्न पर रशक खाने लगे |
आपके हुस्न पर  वो खुबसूरत गज़ल बनाने लगे |
आप भी उसमें झूम कर खुद को जान सको |
अपनी खूबसूरती में दो लफ्ज़ तुम भी बोल सको |

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